किताब तब ही बचती है जब उसमें कोई बात हो 

नवल शर्मा।

किताब तब ही बचती है जब उसमें कोई बात हो 

Ananya soch

अनन्य सोच। “वन्दे मातरम्” स्वाधीनता आंदोलन पर लिखी गई किताब नहीं है बल्कि यह तो अर्थशास्त्र पर सांस्कृतिक स्वरूप में लिखी गई एक अनूठी पुस्तक है. 1959 में प्रकाशित इसके लेखक रामेश्वर मिश्र ने कुल 137 पृष्ठों की इस पुस्तक को ग्यारह अध्यायों में विभाजित करते हुए तत्कालीन भारतीय अर्थशास्त्र की दिशा और दशा का खाका खींचने की कोशिश की है.” यह कहना है वरिष्ठ आलोचक जीवन सिंह का जिनके लिखित वक्तव्य को आज प्रौढ़ शिक्षा समिति के सभागार में आयोजित “वन्दे मातरम्” के लोकार्पण कार्यक्रम में कवयित्री अजंता देव ने सुनाया. 

इस अवसर पर इस पुस्तक के पुनर्प्रकाशन से जुड़े प्रोफ़ेसर सुरेश देमन ने कहा कि ये किताब मैंने छः दशक पहले पढ़ी थी और तभी से ये मेरे पास सुरक्षित रखी थी. मुझे इस किताब की लेखन शैली ने प्रभावित किया। उस दौर की देश की आर्थिक दशा और दिशा पर इस किताब में सरल और सहज शैली में वर्णन किया गया है. कहने को इन गुजरे साठ -पैंसठ सालों में बहुत कुछ बदल गया है लेकिन आर्थिक स्तर पर आज भी दो तरह का भारत हमारे आसपास खड़ा है एक ग़रीबों का भारत और दूसरा अमीरों का. 

वरिष्ठ व्यंग्यकार फारूक आफ़रीदी ने कहा कि इस पुस्तक में भारत की संस्कृति, सामाजिक जीवन, आर्थिक स्थिति का विवेचन किया गया है. हाँलकि आज भी हम आत्मनिर्भर नहीं हैं। लेकिन आंशिक समृद्धता तब भी थी. उस दौर में व्यापार द्वारा ज्ञान का आदान प्रदान हुआ. भारत की संस्कृति को विभिन्न मुल्कों में पहुँचाने का श्रेय व्यापार को जाता है. लेखक के मन में भारत के अर्थशास्त्र को लेकर गहरी सोच है. 

वरिष्ठ कवि कृष्ण कल्पित ने कहा कि कोई भी किताब तब ही बचती जब उसमें बचने की कोई बात होती है. वन्दे मातरम् को 1959 के बाद एक पाठक की स्मृति ने बचाये रखा. ये आइडिया ऑफ़ इंडिया की किताब है। ये एक साहित्यिक कृति है जिसमें लेखक का जीवन भर का सार दिखाई देता है. ये गौरव गान नहीं है बल्कि यह एक सधी हुई भाषा में गहराई व सादगी से गूँथी गई कृति है. इसमें पुरानी बात है पर पुरातन राग नहीं है. अधिकांश किताबें छपते ही नष्ट हो जाती है लेकिन ये बचने की किताब है. प्रो आशा कौशिक ने कहा कि यह किताब अतीत को वर्तमान से जोड़ने का काम करती है. इसकी ख़ास शैली और स्वतःस्फूर्थता हम सीधे जोड़ती है। इसकी निरंतरता और लयात्मक भाषा लेखक की निजी शैली है. यह हमें अपनी प्राचीन जड़ों से जोड़ने का काम करती है. जड़ों से यह जुड़ाव समाज को एक नई समृद्धि देता है. 

डॉ सीमा अग्रवाल ने कहा कि साढ़े छह दशक बाद किसी किताब का पुनर्मुद्रण होना इसकी महत्त्वता को दर्शाता है. इसके अध्याय वेदों की ऋचाओं से लिये गये हैं। इसमें रहीम और कबीर की चर्चा है. इसमें सहकारिता की भावना का ज़िक्र है जिसकी आज बड़ी आवश्यकता है. आज मनुष्य का मनुष्य से संवाद ख़त्म हो गया है. सहकारिता की भावना संस्कृति को पुनः स्थापित करती है. 

वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र बोड़ा ने कहा कि यह पुस्तक अच्छी है लेकिन इसकी आज क्या प्रासंगिकता है और इसकी अहमियता स्पष्ट नहीं होती. न ही इसके लेखक के बारे में आज कोई जानकारी उपलब्ध है. लेखक की शैली पत्रकारिता जैसी है जो अपने समय की रिपोर्ट जैसी है. 

वरिष्ठ पत्रकार व संपादक ओम थानवी ने कहा कि यह किताब उतनी महत्वपूर्ण नहीं है जितनी महत्वपूर्ण प्रो देमन की भावना है. यह किताब 65 साल पुरानी है और इसमें लेखक की अपनी सोच और अपनी भावना है। आज भूमि कृषि , जल जैसी स्थितियाँ बदल चुकी है. लेखक की सोच अच्छी है। इसमें उस दौर में बुने जाने वाले सपनों की चर्चा है. लेखन में साफ़गोई है और लेखक का नज़रिया प्रगतिशील है.