Cinematic Reflections Personal Thoughts of a Dormant Filmmaker Book Review फ़िल्मों और कलाकारों के बारे में एक दर्शक की गहरी सोच दर्शाती पुस्तक
नवल पांडेय। सिनेमा पर यूँ तो आजकल कई किताबें आ रही है जिनमें से अधिकांश या तो हिन्दी सिनेमा के इतिहास अथवा संगीत से संबंधित होती है तो कुछ फ़िल्मी हस्तियों के जीवन और कर्म से जुड़ी होती हैं. इधर , फ़िल्मों पर लिखे गये लेखों व फ़िल्मी समीक्षाओं के संग्रह भी खूब छप रहे हैं. लेकिन एक दर्शक और सिनेप्रेमी की निगाह से फ़िल्मों और फ़िल्मी हस्तियों के जीवन और कृतित्व को देखने का अनूठा अन्दाज़ पेश किया है पूर्णेंदु घोष ने अपनी इस नई व सिनेमा पर पहली पुस्तक “सिनेमेटिक रिफ़्लेक्शंस पर्सनल थॉट्स ऑफ़ ए डॉरमेंट फ़िल्ममेकर” में. इस पुस्तक में लेखक ने अपना फ़िल्मों के प्रति जुनून और गत छह दशक के इस सफ़र को बड़े ही रोचक तरीक़े से प्रस्तुत किया है। यहाँ उस दौर का फ़िल्मी इतिहास, संस्कृति और संगीत जीवंत हो उठा है.
Ananya soch: Ananya soch's exclusive book review
अनन्य सोच। Cinematic Reflections Personal Thoughts of a Dormant Filmmaker Book Review: डॉ. पूर्णेंदु घोष की इस किताब Cinematic Reflections Personal Thoughts of a Dormant Filmmaker फिल्ममेकर’ का हाल ही जयपुर में विमोचन किया गया. इस किताब में उन्होंने अपनी पसंदीदा फिल्मों, डायरेक्ट, एक्टर और गीतकारों के बारे में लिखा है. स्टेच्यू सर्किल स्थित बिड़ला इंस्टीट्यूट ऑफ साइंटिफिक रिसर्च में अपनी बुक लॉन्च के दौरान घोष ने बताया कि फिल्म पर आधारित यह उनकी पहली किताब है.
इंजीनियरिंग साइंस पर कई बुक्स लिखी हैं, लेकिन फिल्मों के बारे में लिखना एक अलग अनुभव रहा है. बचपन से ही मुझे फिल्म देखने का शौक रहा है। इस किताब में मैंने सत्यजीत रे, मृणाल सेन, बलराज साहनी, देवानंद, एचडी बर्मन, वहीदा रहमान जैसे कलाकारों के बारे में लिखा है. किताब में 1960 से 1980 तक की फिल्मों के बारे में लिखा गया है. उन्हें यह किताब लिखने में लगभग 1 साल का वक्त लगा है. इसके टाइटल के बारे में कहा कि इसका मतलब यह है कि इसमें मेरे मन की भावनाएं हैं. ‘डॉरमेंट फिल्ममेकर’ का मतलब है कि अगर में इंजीनियर या प्रोफेसर नहीं होता तो मैं फिल्ममेकर बनता. यह पुस्तक केवल उनके सिनेमा देखने के अनुभवों का वर्णन नहीं है, बल्कि करिश्माई रचनाकारों, दूरदर्शी निर्देशकों और दिग्गज कलाकारों के प्रति श्रद्धा भी है. हर फिल्म उनके लिए एक साझा अनुभव बन जाती है, जो व्यक्तिगत और सार्वभौमिक दोनों स्तरों पर गूंजती है और उनके अपने जीवन की कहानी का हिस्सा बन जाती है. लेखक के अनुसार एक अच्छी फिल्म वह होती है, जो फिल्म खत्म होने के बाद भी दर्शकों के साथ बनी रहे.
अब बात करते हैं लेखक पूर्णेंदु घोष की जो कि वर्तमान में जयपुर में बिड़ला इंस्टीट्यूट ऑफ़ साइंटिफिक रिसर्च के कार्यकारी निदेशक है लेकिन इससे पूर्व वे आई आई टी दिल्ली में प्रोफ़ेसर रह चुके हैं. आपने कई देशों में टेक्नॉलॉजी पर अपने शोधपूर्ण व्याख्यान दिये हैं. आपने इंजीनियरिंग और टेक्नॉलॉजी पर कई किताबें लिखी है लेकिन सिनेमा पर आपकी यह पहली किताब है।तो अब किताब की बात करते हैं.
कभी-कभी, जीवन की राहें हमें उस दिशा में ले जाती हैं, जो हमारे दिल की गहराई में छुपे सपनों से अलग होती हैं. ऐसे में, हम अपने भीतर एक “डॉरमेंट फिल्ममेकर” को महसूस करते हैं—वह छुपा हुआ कलाकार जो कभी सिनेमा की दुनिया में अपनी छाप छोड़ने का सपना देखता था, लेकिन परिस्थितियों या किसी और रास्ते को चुनने के कारण वह सपना अधूरा रह गया.
इंजीनियरिंग एक विश्लेषणात्मक और तार्किक सोच की मांग करती है, जबकि फिल्ममेकिंग एक ऐसी कला है, जो कल्पना, भावनाओं और कहानियों से ओतप्रोत होती है. जब एक इंजीनियर यह महसूस करता है कि उसके भीतर एक फिल्ममेकर छुपा हुआ है, तो यह टकराव उसे आत्ममंथन की ओर धकेलता है. वह सोचता है: “क्या मैं केवल अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारियों के कारण इस रास्ते पर हूं?” क्या मेरा असली पैशन कहीं और है जिसे मैंने दबा दिया है?• कुछ ऐसा ही क़िस्सा है डॉ घोष का भी.
डॉ घोष का फ़िल्ममेकर बनने का सपना केवल एक पेशे की चाह नहीं है; यह खुद को व्यक्त करने और दुनिया को अपनी अनोखी दृष्टि दिखाने की इच्छा है. एक “डॉरमेंट फिल्ममेकर” अक्सर अपने जीवन के अनुभवों को सिनेमा की कहानियों में देखता है. वह हर घटना, हर भावना और हर दृश्य को एक संभावित फिल्म के रूप में महसूस करता है. लेकिन जब वह इन विचारों को पर्दे पर नहीं ला पाता, तो यह भीतर कहीं गहरे एक अधूरेपन का एहसास छोड़ देता है.
इंजीनियरिंग के कठोर और नियमबद्ध संसार में, कला की सहजता और स्वतंत्रता अक्सर खो जाती है. लेकिन डॉ घोष सरीखे एक डॉरमेंट फिल्ममेकर के लिए यह अनुभव ही प्रेरणा का स्रोत बन सकता है. वह सोचता है कि कैसे तकनीक और कला का संगम किया जा सकता है. इंजीनियरिंग में मिली दृष्टि और अनुशासन उसे सिनेमा को एक अलग नजरिए से देखने में मदद कर सकते हैं.
“यदि मैं इंजीनियर नहीं होता, तो मैं फिल्ममेकर होता.” उनका यह विचार न केवल पछतावे का कारण बनता है, बल्कि यह एक नई प्रेरणा भी देता है। हो सकता है कि वर्तमान स्थिति में वह फिल्म बनाने के लिए पूर्णकालिक समय न दे सके, लेकिन वह अपने विचारों और कहानियों को संजोने का काम कर सकता है. वह शॉर्ट फिल्म्स के माध्यम से अपनी शुरुआत कर सकता है। वह स्क्रिप्ट लिखने और फिल्ममेकिंग की तकनीकों को सीखने के लिए समय निकाल सकता है. फिल्में देखने और उनसे सीखने की आदत उसे प्रेरित रख सकती है.
आज की डिजिटल दुनिया में, तकनीक और फिल्ममेकिंग का गहरा संबंध है। एक इंजीनियर, जो फिल्ममेकिंग में रुचि रखता है, वह सिनेमैटिक तकनीकों जैसे एनीमेशन, वीएफएक्स, या डिजिटल एडिटिंग में अपनी जगह बना सकता है. यह रास्ता उसे दोनों दुनियाओं को जोड़ने का अवसर देता है.
डॉरमेंट फिल्ममेकर का यह विचार एक अधूरे सपने की कहानी नहीं है, बल्कि यह उस जुनून की कहानी है, जो डॉ घोष में अभी भी जीवित है। यह जीवन की उस संभावना को दर्शाता है, जिसमें किसी भी समय नई शुरुआत की जा सकती है.
डॉ घोष जो एक इंजीनियर है पर भीतर से एक फिल्ममेकर है, अपने दोनों पक्षों को संतुलित करते हुए कुछ अनोखा और प्रेरणादायक बना सकता है. सपने को जीवित रखना ही असली सफलता है, क्योंकि “डॉरमेंट” का मतलब सोया हुआ है, मरा हुआ नहीं.