अति बौद्धिकता भाषा को शुष्क बना देती है 

नवल पांडेय।

अति बौद्धिकता भाषा को शुष्क बना देती है 

Ananya soch

अनन्य सोच। “अगर मेरे पास कविता नहीं होती तो न मैं हिन्दी अध्यापन में आ पाता और न ही आलोचना मेरा कर्म बन पाती.दरअसल कविता ने ही मुझे जीवन की दूसरी राह पर जाने से रोका है. मैं विज्ञान-गणित का विद्यार्थी रहा हूँ और मेरे साथ के लोग इसी क्षेत्र में आज विदेशों में काम कर कर रहे हैं लेकिन मैं बचपन से ही कविता में रुचि लेता रहा हूँ. ग्यारह साल की उम्र में मैंने पिता के रजिस्टर पर एक कविता लिख दी थी. कविता मेरे लिये कोई औपचारिक या बाहरी चीज कभी नहीं रही.

कविता मेरे भीतर सतत बहने वाली धारा है. कविता और मैं साथ साथ मिलकर बड़े हुए हैं. ” यह कहना है युवा आलोचक, संपादक और कवि आशीष त्रिपाठी का जो जयपुर के वसुंधरा मंच पर प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से आयोजित उनके कविता संग्रह “शांति पर्व” पर चर्चा में बोल रहे थे. उन्होंने कहा कि मैं आज भी आधुनिक कविता के बजाय प्राचीन कविता जो लोक की कविता है, उसके अधिक नज़दीकी महसूस करता हूँ। हमें यह आत्मविश्लेषण करते रहना चाहिए कि जो हम लिख रहे हैं उसमें काव्य तत्व कितना है. उसे कविता कहा भी जा सकता है या नहीं । उन्होंने कहा कि मैं शुरू से ही प्रगतिशील आंदोलन के कार्यों से इतना जुड़ गया कि अपना रचनात्मक लेखन को अधिक समय नहीं दे पाया. चार दशक से कविता से जुड़े होने के बाद भी मेरे कविता संग्रह अधिक नहीं छपे हैं. नामवर सिंह जी के आलोचना कर्म पर मैंने अब तक उन्नीस किताबें संपादित की है और यह काम अब भी जारी है.इस अवसर पर आशीष त्रिपाठी ने अपने संग्रह से चार कविताओं का पाठ भी किया.

चर्चा में भाग लेते हुए युवा कवि विजय राही ने कहा कि आशीष त्रिपाठी हमारे समय के एक महत्वपूर्ण कवि है. “शांति पर्व” अपने अलग तेवर और भाषा की वजह से चर्चित और प्रशंसित हो रहा है. आशीष त्रिपाठी संकटों और समस्याओं में कोई बीच का रास्ता नहीं अपनाते, न ही रोमानियत से क्रूरताओं को ढँकतें हैं बल्कि कवि होने की ज़िम्मेदारी को समझते हुए पूरी ईमानदारी और साहस के साथ समकालीन यथार्थ को संपूर्ण आवेग के साथ व्यक्त करते हैं. शांति पर्व ठिठक ठिठक कर पढ़ने की कविता की किताब है क्योंकि हर ठिठकन के साथ पाठक को भाव, विचार , भाषा और अभिव्यक्ति की अनोखी धज़ यहाँ देखने को मिलेगी.

युवा कथाकार और पत्रकार तसनीम ख़ान ने कहा कि अराजकता और आवाज़ों को कुचले जाने के इस भयानक दौर में प्रतिरोध की चंद आवाज़ें भी सुख देती है, ऐसा हो भरोसा देता है आशीष त्रिपाठी का कविता संग्रह “शांति पर्व”.ये शांति पर्व बच्चे की हंसी के समंदर से शुरू होता हुआ प्रतिरोध के सवाल तक पहुँचता है.

कवि प्रेमचंद गांधी ने कहा कि इस संग्रह में जीवन के तमाम रंग है। कवि ने समाज व समय की विडंबनाओं गहरे जाकर समय के यथार्थ को पकड़ा है। यह श्रेष्ठ कविताएँ हैं. कवि की भाषा और कहन में ठेठपन का स्थायी देशज भाव इन्हें अलग गरिमा प्रदान करता है।आलोचक राजराम भादू ने कहा कि आशीष त्रिपाठी की सहज भाषा आकर्षित करती है, यहाँ पंडिताई नहीं है. अति बौद्धिकता भाषा को शुष्क बना देती है. जब कवि ख़ुद भी आलोचक हो तो पाठक कविता में काव्य और आलोचना दोनों के तत्व खोजने लगते हैं। उन्होंने कहा कि इन कविताओं में संवेदना पक्ष बेहद मजबूत है. ये कविताएँ आत्मा के भीतर से अप्रकट का प्राकट्य है.

कार्यक्रम के अध्यक्ष नंद भारद्वाज ने कहा कि ऐसा माना जाता है कि आलोचना से कविता हाशिये में चली जाती है. आशीष की कविताएँ इस तथ्य को झुठलाती हैं। उनकी ये कविताएँ भरोसा देती है कि वे कभी कविता से दूर नहीं जायेंगे और न ही कविता कभी उनसे दूर जायेगी। कवि को थोड़ा बहुत आलोचक भी होना चाहिये. आशीष त्रिपाठी आम भाषा , सहज शैली और अपने स्वभाविक लहजे में कविता कहते हैं. कविता की महानता यही है कि वो आपसी बातचीत के स्तर पर कही जाए. ये जीवन के समग्र बोध की कविताएँ हैं। ये आत्म समीक्षा की कविताएँ हैं. अपराधबोध , आत्मबोध का विश्लेषण इनका केंद्रीय पक्ष है. यह पितृसत्तात्मक समाज की असहमतियों की कविताएँ हैं. कार्यक्रम का संयोजन डॉ जगदीश गिरी ने किया.