Rajkamal Book Festival: नाटक करना एक क्रांतिकारी काम है : हृषीकेश सुलभ
नवल पांडेय। रंगमंच सीखना सुर साधने जैसा है : अर्चना श्रीवास्तव - परंपरागत नाटक बिना सरकारी सहायता के पनपा है : साबिर खान - साहित्य हमें आसान बनाता है : उषा दशोरा
Ananya soch: Rajkamal Book Festival
अनन्य सोच। Rajkamal Book Festival: राजकमल प्रकाशन समूह द्वारा जवाहर कला केन्द्र में आयोजित किताब उत्सव के चौथे दिन चार सत्रों में कार्यक्रम आयोजित हुआ. अपराह्न 4 बजे से आयोजित कार्यक्रम के पहले सत्र में ‘राजस्थान का रंगमंच’ विषय पर परिचर्चा हुई. सत्र में अर्चना श्रीवास्तव, राघवेंद्र रावत, साबिर खान और हृषीकेश सुलभ से अभिषेक मुद्गल ने राजस्थान में रंगमंच की परंपरा, इतिहास और वर्तमान स्थिति पर बात की.
बातचीत के दौरान साबिर ख़ान ने कहा, परंपरागत नाटक बिना सरकारी सहायता के पनपा है। अनुदान के बिना भी रंगमंच का विकास रुकता नहीं है. टेक्नोलॉजी के आने से रंगमंच परंपरा को फायदा कम और नुकसान अधिक हुआ है.
जयपुर रंगमंच की परंपरा की विशेषताओं को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा, पहले नाटकों में बाकी जगहों पर महिला पात्र भी पुरुष ही निभाते थे, जयपुर ऐसा पहला केन्द्र था जहां महिलाएं भी थिएटर में काम करती थीं. बहस की श्रेणी में सिर्फ़ हिन्दी नाटकों की बात होती है. क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों में खेले जाने वाले नाटकों की परंपरा पर बात करना और उनको बचाए रखना जरूरी है.
हृषीकेश सुलभ ने इसी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, रंगमंच जितना स्थानीय होगा वह उतना ही दीर्घ होगा, जीवन्त होगा. हमारा संकट रहा कि हम राष्ट्रीय रंगमंच की चाह में रह गए, हमने पारम्परिक नाट्य परम्परा को भुला दिया. क्योंकि जो केन्द्र के करीब होना चाहता है, कलाएं उसे बाहर की ओर फेंकती हैं। रंगमंच एक जनतांत्रिक विधा है. नाटक करना एक क्रांतिकारी काम है, उसे समाज और वंचितों के हित में होना ही होगा.
अर्चना श्रीवास्तव ने कहा कि मैं सामाजिक विकास का कार्य नाटक के माध्यम से करना चाहती हूँ. इसलिए हम राजस्थानी युवाओं को नाट्य परम्परा से जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं. यदि नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा की तर्ज पर रीजनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा बनाया जाए तो आंचलिक रंगमंच का विकास संभव है.
आगे उन्होंने कहा, निर्देशन में उतरने से पहले नाटक को पढ़ना ज़रूरी है. आज के अभिनेताओं में परिश्रम और प्रतिबद्धता की कमी दिखाई देती है. रंगमंच सीखना सुर साधने जैसा है. उसके लिए समर्पण चाहिए होता है. रंगकर्मियों का एकमात्र धर्म नाटक होना चाहिए.
राघवेन्द्र रावत ने लोक भाषाओं में नाटक के महत्व पर बात करते हुए कहा, हमें यह विचार करने की जरूरत है कि हम मराठी रंगमंच के स्तर तक क्यों नहीं पहुंच पाए. क्योंकि वहां मराठी भाषा में ही मंचन होता है जिसे दर्शक बोलते-समझते हैं. पारसी थियेटर के अधिकांश नाटक हिंदुस्तानी में लिखे गए थे इसलिए लोकप्रिय हुए. नाटक में दर्शकों का स्थान महत्वपूर्ण है.
इसके बाद उन्होंने जयपुर रंगमंच से जुड़े कलाकारों इरफ़ान ख़ान, नीतू परिहार, मंदाकिनी जोशी के योगदान को याद किया.
दूसरे सत्र में ‘भक्तिकाव्य और राजस्थान’ विषय पर परिचर्चा हुई जिसमें नन्दकिशोर पाण्डेय, पल्लव और रेखा पाण्डेय से गीता सिमौर ने बातचीत की. इस दौरान रेखा पाण्डेय ने कहा, किसी रचनाकार को जानने का सबसे अच्छा तरीक़ा उसकी रचनाएं पढ़ना है मीराबाई सिर्फ़ भक्त नहीं थी, एक सामाजिक कार्यकर्ता भी थी. मीरा ने कृष्ण को सत्ता के प्रतिपक्ष के रूप में गढ़ा। नि:शस्त्र होकर भी मीरा ने सत्ता को चुनौती दी.
वहीं पल्लव ने कहा, मध्यकालीन समाज ठहरा हुआ नहीं था. वह गतिशील था इसलिए अधिक रचनात्मक भी था. उन्होंने कहा कि मीरा की कविताओं पर भी कविताएं लिखी जाती हैं, उन्हें हरजस कहा जाता है। ‘पचरंग चोला पहर सखी री’ का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा कि मीरा पर लिखे जा रहे नए साहित्य को पढ़ा जाना चाहिए.
नंदकिशोर पाण्डेय ने कहा कि राजस्थान में भक्ति साहित्य बल का साहित्य है। कर्मकांड का विरोध सामाजिक चेतना नहीं है; कबीर की सामाजिक चेतना को पढ़ाने में शिक्षकों से चूक हुई है. राजस्थानी भक्ति साहित्य ने धार्मिक भेद को कम करने का कार्य भी किया. लेकिन यह दुर्भाग्य की बात है कि राजस्थान ने भक्ति साहित्य में गवरी बाई जैसे लोगों के योगदान को भुला दिया है.
कार्यक्रम के तीसरे सत्र में ‘साहित्य की दुनिया और हम’ विषय पर उषा दशोरा, निधि रायसिंघानी, विनोद भारद्वाज और सुन्दरम शांडिल्य की बातचीत हुई.
निधि रायसिंघानी ने साहित्य में अच्छे अनुवाद के महत्व पर बात करते हुए कहा, अनुवादक दो संस्कृतियों के बीच सेतु का काम करता है. अनुवाद करते हुए सन्दर्भ का ध्यान रखा जाना आवश्यक है। तकनीक कितना भी विकास कर ले लेकिन अनुवादक की आत्मा आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस में कभी नहीं आ सकती. अमित कल्ला ने कहा कि चित्रकारी मेरे लिए कविता जैसी है। रंगों की भी अपनी भाषा और अपनी व्याकरण होती है। कला का उद्देश्य आनन्द प्राप्त करना है. इसे एक कलाकार ही बेहतर समझ सकता है. वहीं उषा दशोरा ने कहा, साहित्य हमें आसान बनाता है। कला के हर आयाम में अभिव्यक्ति होती है. कहे हुए में अनकहा सुनने की हुनर सिर्फ़ कलाकार के पास होती है. विनोद भारद्वाज ने कहा कि हमें कला और साहित्य के बारे में सही तरह से शिक्षित नहीं किया गया. इन पर पहले जिस तरह की गंभीर चर्चाएँ होती थी, अब वे भी ख़त्म हो गई हैं. अब केवल सतही बातों की गोष्ठियाँ होती हैं.
अंतिम सत्र सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ के कृतित्व पर चर्चा और उनकी ‘प्रतिनिधि कविताएँ’ और ‘प्रतिनिधि कहानियाँ’ पुस्तकों के लोकार्पण का रहा. इस दौरान नन्द भारद्वाज, हृषीकेश सुलभ, पल्लव और अर्चना श्रीवास्तव उपस्थित रहे. अर्चना श्रीवास्तव ने अज्ञेय की कुछ कविताओं का पाठ किया.