और पर्दा गिरता है.....

लेखक- (दौलत वैद राष्ट्रीय संगीत नाटक अकादमी परुस्कृत वरिष्ठ नाट्य निर्देशक एवं परिकल्पक)। दिवंगत रतन थियम स्मृति इस लेख का प्रारम्भ....अंत से करूंगा, जिसके साक्षी केवल भारतीय ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण विश्व के रंग रसिक, कला मर्मज्ञ और नाटक समीक्षक रहे हैं.

और पर्दा गिरता है.....

Ananya soch

अनन्य सोच। और हर बार....जब नाटक समाप्त होता और पर्दा गिरता —तो गुरु रतन थियम जी मंच पर आते. वो किसी अभिनेता की तरह नहीं, बल्कि एक साधक की तरह घुटनों के बल बैठकर, नत-मस्तक होकर, दर्शकों को प्रणाम करते. 

यह क्षण मेरे मन पर गहरी छाप छोड़ता था विनम्रता की पराकाष्ठा, कला का सच्चा समर्पण. 

वह मेरे लिए प्रेरणा का स्रोत है,

एक ऐसा सूत्र जिसे मैं अपनी रंग कला एवं तकनीकी साधना में लिए चलता हूँ. 

मैंने उन्हें कभी मंच पर अपने स्वयं के बारे में बोलते नहीं सुना. शायद इसलिए कि उनका सारा जीवन एक नाटक की तरह बोलता है जिसमें हर दृश्य, हर मौन, हर झुकाव एक गवाही है उनके समर्पण का उनका रंगमंच मणिपुर से निकलकर पूरे भारत के रंगमंच को एक नई भाषा, नई दृष्टि देता है और विश्व भर में अपनी बिशिष्ट पहचान अर्जित करता है. 

रतन थियम सर चले गए....

लेकिन उन्होंने मंच पर संवेदना की लौ छोड़ दी है. वो लौ आज भी जल रही है —जलती रहेगी....

हर उस व्यक्ति के हाथों में जो मंच के पीछे खड़ा है, चुपचाप, निःशब्द, परंतु पूरी श्रद्धा के साथ...जब एक साधक अंतिम प्रणाम करता है, तो वह मंच नहीं छोड़ता, वह एक परंपरा, एक ऊर्जा और एक दृष्टि छोड़ जाता है. 

 रतन थियम भी मंच से ऐसे ही विदा हुए चुपचाप, विनम्र, मगर अमिट छाप छोड़ते हुए. उनकी उपस्थिति कभी केवल “निर्देशक” की नहीं रही,

वो ऋषि थे, 

कलायोगी थे 

जिनकी साधना से भारतीय रंगमंच एक पुनर्जन्म पा गया। मेरे लिए यह लेख केवल एक कलात्मक श्रद्धांजलि नहीं है —

यह एक आत्मीय स्मृति है, एक ऐसा अनुभव जो मंच के पार जाकर, आत्मा से जुड़ गया. 

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्र होने पर जब मैं पहली बार रतन थियम का नाटक देखने गया, तो मुझे यह अंदाज़ा नहीं था कि रंगमंच भी किसी ध्यान-साधना की तरह आत्मा को छू सकता है. उनकी प्रस्तुतियों में प्रकाश, ध्वनि, और मौन—तीनों अपने आप में किरदार होते हैं. शब्दों से ज़्यादा वह जो नहीं कहा गया, वही मन पर असर करता है. मंच पर कोई हड़बड़ी नहीं होती, कोई चौंकाने वाली चालाकी नहीं, सिर्फ़ एक गहरी लय—जैसे कोई ऋषि अपने शिष्यों को मौन में उपदेश दे रहा हो.

रतन थियम जी सिर्फ़ निर्देशक नहीं हैं, वो एक साधक हैं—जो मंच को मंदिर बनाते हैं। मैंने अपने छात्र जीवन में उनके कई नाटक देखे. हर बार मंच पर कुछ अनकहा होता, कुछ ऐसा जिसे सिर्फ़ महसूस किया जा सकता था, शब्दों में नहीं ढाला जा सकता. 

भारत रंग महोत्सव (BRM) में बतौर Technical Coordinator, कई बार मुझे यह सौभाग्य मिला कि रतन थियम जी के नाटकों के उद्घाटन या समापन के विशेष क्षणों का साक्षी बन सकूं. 

उनका आगमन कभी भी केवल “निर्देशक” के रूप में नहीं होता था सभागार में प्रवेश करते ही एक सृजनात्मक ऊर्जा पूरे वातावरण में फैल जाती. वह मंच के समीप नियत स्थान पर स्थिरता से बैठते, और पूरी टीम वरिष्ठ से कनिष्ठ तक बारी-बारी से उनके चरण स्पर्श कर उनका अभिवादन करती. 

इसके तुरंत बाद, बिना समय गंवाए वह अपनी महत्वपूर्ण टिप्पणियों के साथ पूर्वाभ्यास प्रारंभ करते, जो स्वयं में एक शो की तरह होता, शुद्ध, गहन और ध्यानमग्न. मैंने स्वयं महसूस किया है उनकी गहरी चिंता और संवेदना उन सभी के लिए थी जो कला को जीवंत बनाने में लगे होते हैं —तकनीकी टीम, प्रकाश संचालक, मंचकारी, बैकस्टेज के कर्मी उनके लिए ये सभी "तकनीकी कर्मचारी" नहीं, उनके रंगमंच की आत्मा थे. 

बाद में अक्सर उनसे मिलना नाट्य उत्सवों में होता रहा उनकी एक बात आज भी मेरे भीतर गूंजती है:

"इस धरती की कला तभी जीवित रहेगी, जब हम इस धरती के लोगों को प्राथमिकता देंगे." 

मतलब अपनी माटी अपना रंग को सर्वोपरि मानते थे. 

मुझे कई बार अवसर मिला उनकी तपोभूमि 'कलाक्षेत्र' कोरस रेपर्टरी मणिपुर जाने का। वहाँ की शांत, एकाग्र और अनुशासित रंग-ऊर्जा आज भी मेरे भीतर गूंजती है. वह कोई साधारण रंग संस्था नहीं, बल्कि एक ध्यानस्थ क्षेत्र है जहाँ रंगमंच सांस लेता है, साधना करता है. कलाकार वहाँ सिर्फ़ अभिनय नहीं करते, वे उस परंपरा का निर्वाह करते हैं जिसमें कला, जीवन और आत्मा एक हो जाते हैं. 

गुरु रतन थियम रंगमंच का जादूगर-

एक जादुई पिटारा अपने पूरे व्यक्तित्व में साथ लेकर चलता था पिटारा रहस्य से भरा जो दिखता साधारण है, लेकिन उसके भीतर ब्रह्मांड बसता है यह कोई सामान्य पिटारा नहीं, यह एक कलात्मक यंत्र है, जिसमें बसी हैं सभ्यताओं की स्मृतियाँ, मिथकों की गहराइयाँ, और आत्मा की पुकार. 

रतन थियम जी इसमें लेकर चलते हैं संवेदना, संस्कृति और सृजन की चिंगारी। हर मंचन से पहले, वो इस पिटारे को खोलते हैं और पूरी सृष्टि रच डालते हैं. चाँद और सूरज — समय की दो दिशाएँ इस जादुई पिटारे में समाए हैं —

चाँद और सूरज — दो ध्रुव, दो दृष्टियाँ। रतन थियम का रंगमंच इन्हीं के बीच बहता है — चाँद की शांति, सूरज की तेज़ी. 

जब वो पौराणिक ग्रंथों को मंच पर लाते हैं तो उसमें अतीत की कविता और वर्तमान की कशमकश एक साथ गूंजती है। उनके मंच पर चाँद विचार है, सूरज क्रिया. पहाड़

और नदियाँ — आत्मा के दृश्य उनके पिटारे से निकलते हैं —पहाड़, नदियाँ, जंगल और घाटियाँ। ये केवल दृश्य नहीं, ये उनके रंगमंच की आत्मिक भौगोलिकता है. 

नदी की तरह बहते दृश्य, 

पहाड़ों की तरह अडिग विचार। 

उत्तर-पूर्व भारत की भूमि, 

उसकी ध्वनि, 

उसकी भाषा, हर दृश्य में प्रवाहित होती है. 

उनका रंगमंच एक धरोहर की भूमि है, जहाँ जड़ें गहराई तक जाती हैं. 

हाथी, घोड़े, पालकियाँ — इतिहास की गूंज रतन थियम सर के पिटारे से निकलते हैं ये हाथी, घोड़े, रथ कभी खूबसूरत मनोहरी वातावरण बनाते कभी युद्ध की ललकार बन कर प्रेक्षागृह में सनसनी पैदा कर देते हैं और कभी पालकियाँ इतिहास की आत्मा लिए जब मंच पर आती हैं, तो वह सिर्फ़ दृश्य नहीं होते वो एक युग की चेतना को आवाज़ देते हैं. 

घोड़े की टाप में सुनाई देता है युद्ध का आह्वान। पालकी में दिखता है सत्ता का बोझ। ये सब मिलकर कहते हैं — रंगमंच केवल वर्तमान नहीं, इतिहास का भी पुनर्जन्म है. 

श्री रतन थियम मंच को सजाते नहीं —वो उसे गढ़ते हैं. 

अपनी रंग दृष्टि उसे आकार देते हैं, 

हर नाटक उनकी सृजनात्मक कार्यशाला से एक नई जादुई दुनिया बनकर निकलता है. 

उनका रंगमंच हाथ से रचा हुआ सत्य है —शब्द और मौन की संधि. 

मंच एक तपोभूमि

तीसरी घंटी से पहले, जब मंच की साँसें तेज़ होती हैं, वो अपने जादुई पिटारे को खोलते हैं और रच देते हैं एक संपूर्ण ब्रह्मांड. यह सिर्फ मंच नहीं —तपस्थली बन जाता है। कलाकार साधक बन जाते हैं। ध्वनि, स्वर, संवाद, मंत्र, आंदोलन, आरती. 

यह रंगमंच मनोरंजन नहीं —एक अनुष्ठान है. 

फिर बिना बादल, बरसात, बिना बूंदों के उग आता है इंद्रधनुष रतन थियम सर के रंगमंच में तर्क की नहीं, कल्पना की वर्षा होती है. वो इंद्रधनुष उस आशा का प्रतीक है, जो यथार्थ से परे है —जो बताता है कि सुंदरता अब भी संभव है, कारणों के बिना भी. 

मन का हाथी और फिर, किसी दृश्य के कोने में बैठ जाता है —एक हाथी। वो कुछ नहीं कहता. पर जब आप रंगमंच से बाहर निकलते हैं, वो आपके भीतर रह जाता है. 

एक स्मृति, 

एक सवाल, 

एक मौन-सा भारीपन थियम की कला सिर्फ देखने के लिए नहीं —

याद रहने के लिए है. 

जब अंतिम दृश्य पूरा होता है,

पर्दा गिरता है,

तो रतन थियम घुटनों पर बैठ

हाथ जोड़ते हैं, मौन में शीश नवाते हैं. 

ये उनका अभिमान नहीं —

आभार है। और फिर, वो उठते हैं —

अपने उत्तर-पूर्व की ओर

चुपचाप लौट जाते हैं।

मगर इस बार वो अपना जादुई पिटारा वहीं छोड़ जाते हैं. 

आज जब मंच चमक और शोर से भर गया है, जहाँ कला जल्दबाज़ी में बिकने लगी है,

वहाँ रंग शिरोमणि श्री रतन थियम का रंगमंच 

एक मौन दीपक है —

जो धीमे-धीमे,

भीतर तक उजाला करता है।

वो निर्देशक नहीं —ऋषि हैं. 

जिन्होंने संवाद नहीं, साधना से बात की है। 

और अब.....

वो जादुई पिटारा वहीं रखा है —

मंच के किनारे,

किसी अगले साधक, किसी नए जादूगर के लिए —

जो उसे फिर से खोले, 

और नई सृष्टि रचे।

उनका जादुई पिटारा मेरे एवं देश के रंग साधकों के लिए केवल एक प्रतीक नहीं —

वह प्रेरणा का स्रोत है!

सादर नमन.

Disclaimer: ये लेखक के स्वयं के विचार है.