दो पंक्तियों में गंभीर बात करता है दोहा

Ananya soch
अनन्य सोच। दोहा दो पंक्तियों में गहरी से गहरी बात कह देता है। दोहे की शक्ति अद्भुत है। यह कहना था केंद्रीय विद्यालय संगठन के पूर्व आयुक्त श्री जगदीश मोहन रावत का, जो जयपुर के एक प्रतिष्ठित होटल में कवयित्री व लेखिका वीनू शर्मा की काव्य-कृति “ज़िंदगी को तलाशते दोहे” के लोकार्पण समारोह में बतौर मुख्य वक्ता बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि दोहा अपने छोटे से आकार में भी विराट चिंतन और गहरी संवेदना समेटे होता है। इसमें ग्यारह और तेरह मात्राओं की सीमित रचना-शैली होते हुए भी जो बात कही जाती है, वह कभी-कभी बड़े-बड़े ग्रंथों की बातों पर भारी पड़ती है। उन्होंने कबीरदास का उल्लेख करते हुए कहा कि कबीर ने अपने समय में धर्म के नाम पर फैली कुरीतियों, पाखंड और सामाजिक विसंगतियों पर तीखे प्रहार किए, और यह सब उन्होंने अपने दोहों के माध्यम से किया, जो आज भी उतने ही प्रासंगिक और प्रभावशाली हैं।
श्री रावत ने रहीम और तुलसीदास की मित्रता और उनके दोहों के माध्यम से हुए संवाद को याद किया। उन्होंने बताया कि किस प्रकार दोहा न केवल चिंतन का माध्यम है, बल्कि वह आपसी संवाद और विमर्श का भी सशक्त जरिया रहा है। उन्होंने एक रोचक प्रसंग का उल्लेख करते हुए बताया कि एक बार तुलसीदास ने रहीम को एक अधूरा दोहा भेजा — “धूरि धरत निज शीश पर, कहु रहीम कहि काज” — और रहीम ने इसका सुंदर उत्तरात्मक समापन करते हुए दूसरी पंक्ति भेजी — “जेहि रज मुनि पत्नी तरी, सो ही ढूंढ़त गजराज।” इस उदाहरण से यह स्पष्ट होता है कि दोहा कैसे तत्कालिक संदर्भ में विचारों की पूर्ति कर सकता है, संवाद को आगे बढ़ा सकता है और गूढ़ बातों को सहज भाषा में कह सकता है।
उन्होंने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए लालमणि त्रिपाठी और शेख नामक जुलाहिन के ऐतिहासिक प्रसंग की चर्चा की। यह प्रसंग इस बात का प्रमाण है कि दोहे की ताक़त से व्यक्ति की सामाजिक हैसियत और पहचान तक बदल सकती है। लालमणि त्रिपाठी को केवल अपने सशक्त दोहों के कारण ‘शाह आलम’ की उपाधि प्राप्त हुई, जो दर्शाता है कि यह विधा कितनी प्रभावशाली रही है।
श्री रावत ने समकालीन परिप्रेक्ष्य में जावेद अख़्तर की हाल ही में प्रकाशित पुस्तक “सीपियाँ” का ज़िक्र करते हुए कहा कि यह पुस्तक एक सेतु की तरह काम करती है — जो सदियों पुराने दोहों को आज की आधुनिक ज़िंदगी से जोड़ती है। उन्होंने कहा कि जावेद अख़्तर ने दिखाया है कि किस प्रकार इन दोहों में छिपी जीवन दृष्टि, नैतिक मूल्यों और अनुभवों की रोशनी आज भी हमारे जीवन को दिशा दे सकती है। यदि हम इन दोहों की सीख को समझें और उसे अपने जीवन में अपनाएं, तो हम न केवल बेहतर इंसान बन सकते हैं, बल्कि अपने समाज को भी अधिक संवेदनशील और मानवीय बना सकते हैं।
उन्होंने वीनू शर्मा की कृति “ज़िंदगी को तलाशते दोहे” की सराहना करते हुए कहा कि यह संग्रह दोहे की परंपरा को समकालीन जीवन के विविध रंगों से जोड़ता है। वीनू शर्मा एक भावुक कवयित्री हैं, जिनकी रचनाओं में ममता की गहराई, वात्सल्य की कोमलता और सहजता की मिठास दिखाई देती है। उन्होंने अपने दोहों में पर्वों, ऋतुओं, रिश्तों, अनुभवों, संघर्षों और जीवन के विविध पहलुओं को बेहद सहज और प्रभावशाली भाषा में अभिव्यक्त किया है। यह कृति केवल एक काव्य-संग्रह नहीं है, बल्कि यह जीवन-दर्शन की सूक्तियों का एक जीवंत संग्रह है जो पाठकों को आत्म-मंथन के लिए प्रेरित करता है और जीवन के प्रति एक सकारात्मक दृष्टिकोण प्रदान करता है।
शिक्षाविद् डॉ. रेखा गुप्ता ने लोकार्पण समारोह के अवसर पर अपने उद्गार व्यक्त करते हुए कहा कि दोहा जैसी छोटी मगर प्रभावशाली विधा में लिखना वास्तव में एक बड़ी और कठिन कला है। उन्होंने कहा कि वीनू शर्मा की लेखनी न केवल प्रभावशाली है, बल्कि भावों की गहराई और शब्दों की सादगी के माध्यम से पाठकों को भीतर तक छू जाती है। “ज़िंदगी को तलाशते दोहे” संग्रह में संकलित आठ सौ से अधिक दोहे इस बात का प्रमाण हैं कि दोहों में भी एक समग्र जीवन-दृष्टि समाई जा सकती है।
डॉ. गुप्ता ने कहा कि यह संग्रह जीवन के अनुभवों, मनोभावों और परिस्थितियों को दो पंक्तियों के छोटे से ढांचे में इस प्रकार प्रस्तुत करता है कि पाठक न केवल प्रभावित होता है, बल्कि उसमें आत्मचिंतन की भावना भी जागृत होती है। उन्होंने विशेष रूप से इस बात पर बल दिया कि दोहा भले ही तेरह मात्रा का छोटा छन्द हो, लेकिन इसकी अभिव्यक्ति की शक्ति अपार होती है। इस संग्रह के दोहों में जीवन के विविध रंग, धूप-छांव भरे अनुभव, मन के सूक्ष्म उद्गार और भावनाओं की अंतरगूथन देखने को मिलती है — जो निस्संदेह एक बड़ी और परिपक्व काव्य-कला का प्रमाण है।
उन्होंने कहा कि इन दोहों में शब्दों की उजास है, जिनमें पाठक अपने जीवन का प्रतिबिंब देख सकता है। लेखिका ने “देखन में छोटे लगे, घाव करें गंभीर” को पूर्णतः सार्थक किया है। संग्रह में माँ शारदे के प्रति समर्पण से लेकर श्रीराम और श्रीकृष्ण की महिमा, पर्यावरण के प्रति जागरूकता, प्रकृति के सौंदर्य, प्रेम, सौहार्द, भक्ति, और अध्यात्म जैसे विविध और व्यापक विषयों को बहुत सहजता से पिरोया गया है।
डॉ. रेखा गुप्ता ने लेखिका के इस रचनात्मक प्रयास को अत्यंत सराहनीय बताते हुए कहा कि यह संग्रह न केवल काव्य प्रेमियों के लिए एक अमूल्य भेंट है, बल्कि यह शिक्षार्थियों और पाठकों को भी दोहे के माध्यम से जीवन को देखने की एक नई दृष्टि देता है। यह कृति आधुनिक दोहा लेखन की एक सशक्त मिसाल है, जो परंपरा के सम्मान के साथ-साथ वर्तमान युग की संवेदनाओं को भी समेटे हुए है।
कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि प्रसिद्ध शायर लोकेश कुमार सिंह “साहिल” ने कहा कि “अच्छी और ख़राब रचनाएँ हर दौर में लिखी जाती रही हैं। समय की कसौटी पर जो बची रह जाये वो ही श्रेष्ठ रचना है। उन्होंने कहा कि कविता और कहानी कहने की विधा है लिखने की नहीं। आजकल कुछ लोग लोक में कविता का जुड़ाव और माँग पर कविता के लिखे जाने को हेय मानते हैं। उनके यहाँ फ़िल्मी गीत और मंचीय कविताएँ दोयम मानी जाती हैं। जबकि साहिर लुधियानवी, शैलेंद्र, जावेद अख़्तर सरीखे गीतकारों के सभी लोकप्रिय और प्रसिद्ध गीत फ़िल्मों में निर्देशक की माँग पर ही रचे गए हैं। सिनेमा के स्वर्णकाल कहे जाने वाले पचास और साठ के दशक के गीत माँग पर ही लिखे गए हैं। उन्होंने अतुकांत कविताओं की चर्चा करते हुए कहा कि अतुकांत ख़राब विधा नहीं है लेकिन छंद को वो हो तोड़ सकता है जिसे छन्द का ज्ञान हो। अतुकांत कवि अपनी कमजोरी को ही अपनी विधा बनाने में लगे हैं जो सही नहीं है।
मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार डॉ हेतु भारद्वाज ने कहा कि साहित्य की तलाश ही जीवन को समझना है । इसी के लिए सारा साहित्य रचा गया है। कवयित्री बीनू शर्मा ने इस पुस्तक में अच्छे दोहे लिखे हैं। इसका शीर्षक “ज़िंदगी को तलाशते दोहे” सार्थक है। उन्होंने कहा कि दोहा मात्र तेरह ग्यारह मात्रा की बात नहीं है बल्कि दोहा छन्द शास्त्र का अंग है। दोहा सरल छंद है जिसे गाया जा सकता है। दोहा पूरी तरह साहित्यिक छन्द है और इसमें जब अनूठापन और नवीनता होगी तभी वो जीवित रहेगा। दोहा एक रूप है उसे जीवन के अनुभवों से नएपन के साथ सजाना है। दोहे में जब अनुभव और विविधता आते हैं तभी उसमें जीवंतता आती है। रचनाकार को शब्दों के खेल को अच्छी तरह समझना चाहिए। दोहे में सौंदर्य परक मूल्य होने चाहिए। इसमें नवीन कल्पना को आकार दिया जान चाहिए। उन्होंने कहा कि कबीर के पहले भी दोहे रचे गए हैं। गोरखनाथ का दोहा कोश , राजिया रा दुहा, बिहारी और रसलीन के ग्रंथ आदि इसके प्रमाण हैं। यहाँ दो पंक्तियों में सहजता से नीति की बात कह देने की कला के दर्शन होते हैं। इनमें रची गई कहावतों का जीवन में बड़ा मूल्य है। उन्होंने कहा कि रचना और कला किसी के काबू में आने वाली चीज नहीं है सिवाय लेखक के अलावा। समय का प्रवाह कभी रुकता नहीं है साहित्य काम व्यक्ति के मन को मथना है ताकि वो समय के सरोकारों के साथ खड़ा हो सके। साहित्य मनुष्य के हृदय को बड़ा बनाता है।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ साहित्यकार डॉ नरेंद्र शर्मा “कुसुम” ने कहा कि आज विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने कई अच्छे-अच्छे काम किए हैं। हमें गर्व है कि हम आधुनिकतम विज्ञान और तकनीक के दौर में जी रहे हैं लेकिन अफ़सोस है कि आज मानवीय संवेदनायें क्षीण होती जा रही हैं।संवेदना के साथ संवाद भी खत्म होता जा रहा है।इस दौर में ज़मीन से आसमान की दूरियाँ घटती गई हैं लेकिन आदमी से आदमी का फासला लगातार बढ़ता गया है।आज संवेदना के सरोवर सूखते जा रहे हैं। संवेदना के कलश रीतते जा रहे हैं।इस फ़ासले को केवल कविता ही घटा सकती है। साहित्य में ही ऐसी शक्ति है जो लोक को बचा सकती है क्योंकि कविता ही लोक का मंगल करने की शक्ति रखती है।कविता ही इंसानियत की इबादत है। उन्होंने कहा कि यह दौर बहुत कठिन है इसलिए कोशिश होनी चाहिए कि “जलती रहे दीये की बाती”।
इस अवसर पर लेखिका वीनू शर्मा और रज़ा शैदाई ने पुस्तक से दोहों का पाठ किया।
कार्यक्रम का संचालन लेखिका सुशीला शील ने किया।