किताबों में ही जीवन बदलने की ताक़त होती है – सुधा मूर्ति

नवल पांडेय।

किताबों में ही जीवन बदलने की ताक़त होती है – सुधा मूर्ति

Ananya soch

अनन्य सोच। फ्रंट लॉन का पहला सत्र न केवल रोचक बल्कि ज्ञानवर्धक भी रहा। इस सत्र में प्रसिद्ध समाजसेविका, लेखिका, राज्यसभा सांसद और प्रेरक वक्ता सुधा मूर्ति तथा उनकी पुत्री, शिक्षाविद् अक्षता मूर्ति के बीच संवाद हुआ. यह चर्चा “माय मदर, माय सेल्फ” विषय पर केंद्रित थी, जिसमें सुधा मूर्ति ने अपने बचपन, परवरिश और जीवन मूल्यों पर बात की। उन्होंने सेवा, समाज, परंपरा और नैतिकता जैसे विषयों पर अपने अनुभव साझा किए. 

इस विशेष सत्र में ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री ऋषि सुनक, इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति, राजस्थान सरकार के प्रमुख शासन सचिव डॉ. सुधांश पंत सहित कई वरिष्ठ व्यक्ति मौजूद थे. चर्चा के दौरान कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर विचार किया गया, जिनमें प्रमुख रूप से लर्निंग (सीखना), लिविंग (जीवन जीना), नॉलेज (ज्ञान), आदर्शवाद (आइडियलिज्म) और दृढ़ संकल्प (डिटरमिनेशन) शामिल थे. 

आदर्शवाद और जीवन के मूल्य

अक्षता मूर्ति ने एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया—“अगर कोई 20 साल की उम्र में आदर्शवादी नहीं है, तो इसका मतलब है कि उसके पास दिल नहीं है, और अगर कोई 40 के बाद भी आदर्शवादी है, तो इसका मतलब है कि उसके पास दिमाग नहीं है। क्या आदर्शवाद केवल युवावस्था तक सीमित है?”

इसके उत्तर में सुधा मूर्ति ने दृढ़ता से कहा, “मैं 74 साल की उम्र में भी आदर्शवादी हूं। मैंने हमेशा यही सिखाया है कि सबसे पहले एक अच्छा इंसान बनो। दिल साफ़ रखो, जो सोचो वही कहो और वही करो। जब विचार, शब्द और कर्म में सामंजस्य होगा, तभी जीवन संतुलित रहेगा.”

किताबों से जुड़ाव और सीखने की प्रक्रिया

अक्षता ने अपनी माँ से उनके प्रिय विषय—किताबों—पर चर्चा की। उन्होंने पूछा, “आप किताबों से इतना सीखती हैं और हमें भी पढ़ने के लिए प्रेरित करती हैं. यह आदत आपके जीवन में कैसे विकसित हुई?”.

इस पर सुधा मूर्ति ने अपने बचपन की यादें साझा कीं—
“मैं शिक्षकों के परिवार से आई हूं। नारायण मूर्ति को छोड़कर मेरे परिवार के सभी लोग शिक्षा से जुड़े थे. बचपन में हर अवसर पर हमें उपहार के रूप में किताबें मिलती थीं, पैसे नहीं. हमें बताया जाता था कि नॉलेज सबसे महत्वपूर्ण है. इसीलिए मैंने तुम और रोहन (अक्षता के भाई) को भी किताबों के माध्यम से बड़ा किया.”

अक्षता ने आगे कहा—“हमारे घर में लिटरेचर की किताबें तुम्हारे पास थीं और पापा के पास साइंस और टेक्नोलॉजी की. हमने दोनों को मिलाकर अपनी लाइब्रेरी बनाई। लेकिन मैं यह जानना चाहती हूं कि तुम्हारी किताबों में कौन-सी ऐसी किताब है, जो तुम्हारे ‘लव फॉर लर्निंग’ की वैल्यू को प्रमोट करती है?”

सुधा मूर्ति ने बिना देर किए जवाब दिया—*”‘हाउ आई टॉट माय ग्रैंडमदर’ मेरी सबसे पसंदीदा किताबों में से एक है। मेरी दादी 62 साल की थीं और मैं 12 साल की। वे कन्नड़ सीखना चाहती थीं। मैंने पूछा, ‘इतनी उम्र में कैसे सीखोगी?’ उन्होंने जवाब दिया, ‘सीखने की कोई उम्र नहीं होती।’ जब मैंने उन्हें पढ़ना-लिखना सिखाया, तो उन्होंने मेरे पैर छू लिए और कहा, ‘जिसने मुझे एक भी अक्षर सिखाया, वह मेरा गुरु है।’ यह किताब मुझे इसीलिए बहुत प्रिय है।”

समाजसेवा और नैतिकता की शिक्षा

अक्षता ने बचपन की एक घटना को याद किया—“जब मैंने अपना जन्मदिन मनाने की जिद की थी, तो तुमने पार्टी करने के बजाय उन पैसों को चैरिटी में लगाने के लिए कहा। तब मुझे यह अच्छा नहीं लगा, लेकिन अब समझ आता है कि तुमने मुझे समाज की सेवा का महत्व सिखाया। तुमने CSR (कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी) को तब अपनाया, जब यह फैशनेबल भी नहीं था और अनिवार्य भी नहीं। इसकी नींव कैसे पड़ी?”

इस पर सुधा मूर्ति ने अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि का ज़िक्र किया—
“मेरी दादी विधवा थीं, लेकिन पूरे गांव की महिलाओं की प्रसव के दौरान मदद करती थीं। उन्होंने कभी किसी से बदले में कुछ नहीं माँगा। मेरे पिता नास्तिक थे, लेकिन उनके लिए सेवा ही ईश्वर थी। यही कारण है कि मुझे कभी नहीं लगा कि मैंने कुछ खास किया। जब मैं ईश्वर से मिलूंगी, तो कहूंगी—‘मैंने तुम्हारी सेवा की, वैसे ही जैसे तुम्हारी भक्ति की जाती है।’”

गीता का प्रभाव और जीवन में कर्मयोग

अक्षता ने गीता का उल्लेख करते हुए कहा—“हम सबने गीता में पढ़ा है—‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन…’। इस विचार से तुम्हारा कोई विशेष जुड़ाव है?”

सुधा मूर्ति ने अपने एक महत्वपूर्ण अनुभव को साझा किया—*”‘थ्री थाउजेंड स्टिचेस’ मेरी वह किताब है, जिसमें मैंने इसका उल्लेख किया है। 20 साल पहले मैंने सेक्स वर्कर्स के पुनर्वास के लिए काम करना शुरू किया था। शुरू में उन्होंने मुझ पर टमाटर फेंके और अपमानित किया। मैंने सोचा, ‘क्या मुझे यह करना चाहिए?’ लेकिन फिर मुझे एहसास हुआ कि यह काम बेहद ज़रूरी है। मैंने फल की चिंता किए बिना काम किया और धीरे-धीरे 3000 सेक्स वर्कर्स की ज़िंदगियाँ बदलने में सफल रही। इस सफर में नारायण मूर्ति ने मेरा बहुत साथ दिया। मैं अपने पति को पति नहीं, बल्कि अपना दोस्त मानती हूं।”

पसंदीदा किताबें और आदर्शवाद का प्रभाव

अक्षता ने बताया कि उन्हें ऐसी किताबें पसंद हैं, जिनमें ‘स्टोरी ऑफ़ रेज़िलिएंस’ होती है, जैसे—‘शेक्सपीयर की हैमलेट’ और ‘एलिसन वे की सिक्स ट्यूटर क्वीन’। उन्होंने पूछा, “क्या आपको भी कोई ऐसी किताब मिली जिसने आपके आदर्शवादी विचारों को प्रेरित किया?”

सुधा मूर्ति ने एक मार्मिक अनुभव साझा किया—*“मेरी एक किताब के अध्याय ‘अ वेडिंग टू रिमेंबर’ से जुड़ी एक घटना मुझे हमेशा याद रहती है। एक बार मुझे किसी शादी में बुलाया गया। जब मैंने कारण पूछा, तो दूल्हे के पिता ने बताया कि उनके बेटे ने मेरी किताब पढ़ी और एक इकोडर्मा से पीड़ित लड़की से शादी करने का फैसला किया। यही मेरे लिए आदर्शवाद की सबसे बड़ी जीत थी।”

दृढ़ संकल्प और संघर्षों से सीखना

अंत में सुधा मूर्ति ने दृढ़ संकल्प और जीवन में आने वाली चुनौतियों को लेकर अपने विचार साझा किए। उन्होंने कहा—“कई किताबों ने मुझे संघर्ष और संकल्प का पाठ पढ़ाया। जब मैं बच्ची थी, तो मेरे हीरो मेरे दादा थे। बड़ी हुई, तो पिता हीरो बने। फिर महसूस हुआ कि असली सीख अनुभवों से मिलती है। ‘टेन थाउज़ेंड माइल्स विदआउट क्लाउड’ और ‘किंगडम ऑफ़ इंडस’ वे किताबें हैं, जिन्होंने मुझे बहुत कुछ सिखाया।”

अक्षता ने इस वार्तालाप को सार्थक तरीके से समेटते हुए कहा—“तुम्हारी दी गई शिक्षा और किताबों से मिली सीख ने ही मुझे आज यह आत्मविश्वास दिया कि मैं तीन अलग-अलग देशों में जाकर रह सकी। जब मेरे एक्शन से आसपास कोई बदलाव आता है, तो वही मुझे सबसे ज्यादा ऊर्जा देता है।”

इस सत्र का सार यही था कि किताबें न केवल ज्ञान का स्रोत हैं, बल्कि जीवन को दिशा देने वाली प्रेरणाएँ भी हैं।