jaipur literature festival news: इंडस्ट्री आपके बंगले का पिछवाड़ा नहीं -अमोल पालेकर
नवल पांडेय।

Ananya soch: jaipur literature festival news
अनन्य सोच। First Session “The Viewfinder – Amol Palekar”: jaipur literature festival में आज फ्रंट लॉन का First Session “The Viewfinder – Amol Palekar” नाम से था जिसमें हिंदी सिनेमा के दिग्गज Actor and film director Amol Palekar की आत्मकथा “द व्यूफाइंडर ए मेमॉयर” का लोकार्पण किया गया। इस अवसर इस पुस्तक की संपादक और अमोल पालेकर की पत्नी संध्या गोखले के साथ संजॉय के रॉय ने चर्चा की।
संध्या ने बताया कि इस पुस्तक में अमोल पालेकर के छह दशक के सिनेमा और थियेटर की यात्रा और उनके जीवन संघर्ष की यादें हैं। कई प्रकाशकों ने इन्हें अपने संस्मरण लिख कर देने की पेशकश की लेकिन अपनी व्यस्तताओं के चलते इन्हें समय ही नहीं मिलता था। फिर कोविड का एक ऐसा दौर आया जब इन्हें थोड़ा समय मिला और इस तरह छह महीने में यह किताब तैयार हुई। अमोल ने कहा कि मैंने चार सौ पचास हस्तलिखित पृष्ठ लिखकर संध्या को सौंप दिए, बाक़ी सारा काम इन्हीं का है।
अमोल ने अपने शुरुआती सफ़र का जिक्र करते हुए बताया कि मैं एक्सीडेंटली एक्टर बन गया हूँ। मैंने कभी नहीं सोचा था कि फ़िल्मों में काम करूँगा। में तो जे जे स्कूल ऑफ़ आर्ट से पढ़ा हूँ और पेंटर बनना मेरी इच्छा थी। मैं तो हमेशा एक पेंटर की ही तरह जीना और मरना चाहता था।
जीवन में हमेशा स्पष्टवादी और ईमानदारी से अपनी बात रखने की आदत के कारण अमोल पालेकर के सिनेमा में कई व्यक्तियों के साथ कड़ुवे अनुभव भी हुए हैं। निर्माता निर्देशक बी आर चौपड़ा के साथ हुए ऐसे ही एक विवाद का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया कि उन्होंने बताया- बी.आर. चोपड़ा की फिल्म कंपनी ने उन्हें 40,000 रुपए देने थे, लेकिन फिल्म की रिलीज तक वह पैसे नहीं मिले। जब उन्होंने इस बारे में बात की और एक लिखित आश्वासन मांगा, तो इंडस्ट्री में इसे चुनौती देने जैसा माना गया। अमोल पालेकर ने बताया- मुझे सिर्फ पैसे नहीं, बल्कि इज्जत चाहिए थी, जो मुझसे छीनी जा रही थी। इंडस्ट्री में यह नॉर्म था कि अगर पेमेंट नहीं हो रहा तो एक लेबर लेटर दिया जाता था। मैंने चोपड़ा साहब से यही कहा कि मैंने शूटिंग रोकी नहीं, काम भी पूरा किया, बस एक लीगल प्रक्रिया पूरी करना चाहता था। इस पर चोपड़ा साहब ने कहा कि "तुम्हें इंडस्ट्री से बाहर फेंक दूंगा।"
अमोल पालेकर ने बताया- मैंने इसका जवाब देते हुए कहा, "बी.आर. चोपड़ा साहब, इंडस्ट्री आपके बंगले का पिछवाड़ा नहीं है। मैं अपनी शर्तों पर यहां हूं, किसी फिल्मी खानदान से नहीं आता, फिर भी इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाई है। देखते हैं कौन किसे निकालता है। मैंने मामला कोर्ट में ले जाने का फैसला किया और सालों बाद मुझे 40,000 रुपए की राशि के साथ 5 गुना अमाउंट ब्याज सहित मिले।
मुंबई फ़िल्म फेस्टिवल “मामी” की स्थापना के संस्मरण सुनाते हुए अमोल ने बताया कि हमने एक ऐसा फ़िल्म समारोह मनाने का फ़ैसला लिया जिसमें बिना किसी सरकारी सहायता के सिर्फ़ इंडस्ट्री के लोगों के साथ और उन्हीं के लिए मनाया जाएगा। हमने तय किया कि इस समारोह में मंच पर किसी भी मंत्री और राजनेता को आमंत्रित नहीं किया जाएगा। नेता और सरकारी अधिकारी मंच के सामने आरक्षित सीटों पर ही बैठेंगे। हमारे इस निर्णय से बाला साहब ठाकरे को परेशानी हुई और उन्होंने मुझे फ़ोन पर कहा कि आप हमारे मंत्रियों का अपमान क्यों कर रहे हैं? मैंने उन्हें बताया कि यह समारोह फ़िल्म इंडस्ट्री का है और श्याम बेनेगल, मृणाल सेन, बासु चटर्जी जैसे दिग्गज इसका शुभारंभ करेंगे। हमारा उद्देश्य किसी का अपमान करना नहीं बल्कि इंडस्ट्री के महान लोगों का सम्मान करना है। वे इससे सहमत हो गए और समारोह में शामिल मंत्री वगैरा मंच के सामने ही बैठे।
बाला साहेब के साथ हुए दूसरे विवाद का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया कि 1996 में महाराष्ट्र में शिवसेना-भाजपा गठबंधन के सत्ता में आने के बाद उनकी सरकार ने ‘महाराष्ट्र भूषण’ पुरस्कार देने की की थी. महाराष्ट्र में शिवसेना-बीजेपी की सरकार में मनोहर जोशी मुख्यमंत्री थे. अब वे ठहरे बाल ठाकरे के परम चेले…! तो सरकार में कुछ लोग पहले महाराष्ट्र भूषण’ पुरस्कार के लिए बालासाहेब ठाकरे का नाम लेकर सामने आए. लेकिन ठाकरे ने ये पुरस्कार लेने से मना कर दिया और मनोहर जोशी को अपने गुरू के समान साहित्यकार पी. एल. देशपांडे को महाराष्ट्र भूषण’ पुरस्कार देने को कहा.
दरअसल बालासाहेब ठाकरे दादर के ओरिएंट हाई स्कूल में छात्र थे और उसी स्कूल में पी. एल. देशपांडे 1945 में एक शिक्षक के रूप में शामिल हुए. इस स्कूल में पी. एल. की पत्नी सुनीताबाई देशपांडे भी शिक्षिका के रूप में कार्यरत थी. जब महाराष्ट्र सरकार ने देशपांडे को महाराष्ट्र भूषण के पहले पुरस्कार से सम्मानित करने का फैसला किया, तो सामाजिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में सभी ने उनका गर्मजोशी से स्वागत किया.
प्रथम महाराष्ट्र भूषण पुरस्कार समारोह प्रभादेवी के रवींद्र नाट्य मंदिर में आयोजित किया गया था. पी. एल. देशपांडे बीमार होने के बावजूद वे किसी तरह समारोह में शामिल हुए. पुरस्कार ग्रहण करने के बाद सुनीताबाई ने पी. एल. देशपांडे की ओर से अपना संदेश पढ़कर सुनाया. और यही से एक बड़े विवाद की शुरूआत हुई.
अपने भाषण में पी. एल. देशपांडे ने उस समय महाराष्ट्र के भयावह माहौल और आम लोगों की दुर्दशा पर दुःख व्यक्त किया. उन्होंने महाराष्ट्र की नव निर्वाचित सरकार की ईट से ईट बजा दी. उन्होंने कहा कि – ‘शिवसेना-बीजेपी गठबंधन ने छत्रपति शिवाजी के सिद्धांतों के आधार पर एक शिवशाही को लागू करने का वादा किया था लेकिन शिवशाही के बजाय उन्होंने ठोकशाही का प्रशासन शुरू कर दिया है.’
‘ठोक शाही’ शब्द ठाकरे को बेहद नागवार गुजरा. खैर पुरस्कार समारोह में तो किसी ने कुछ नहीं कहा लेकिन समारोह के अगले दिन सायन में एक पुल के उद्घाटन के अवसर पर बालासाहेब ठाकरे उपस्थित थे. वहां ठाकरे का भाषण पूर्व निर्धारित नहीं था लेकिन अचानक से बालासाहेब ठाकरे ने माइक को अपने नियंत्रण में ले लिया और कहा – ‘यदि उन्हें गठबंधन सरकार के खिलाफ बोलना है तो पुरस्कार ही क्यों लिया ? ये लेखक (पी.एल. सहित) क्या जानते हैं ? समाज की क्या उपयोगिता है ?’
महाराष्ट्र में पी. एल. देशपांडे को उनके प्रथम नाम पु. ल. से जाना जाता है. बाल ठाकरे ने कहा कि ‘इस टूटे पुल से प्रवचन कौन सुनेगा ? पुराने पुलों को तोड़ दिया जाना चाहिए और नए पुलों का निर्माण किया जाना चाहिए…!’ ठाकरे ने क्रोध में बोलते हुए कहा कि ‘उन्होंने ‘जक मारली’ जो उन्हें (पी. एल.) को सम्मानित किया.’
पर यहां बाल ठाकरे पी. एल. देशपांडे की लोकप्रियता का अंदाजा लगाने में चूक गए. दरअसल अपनी साहित्य, संस्कृति, कला, खेल, संगीत आदि को लेकर जैसी संवेदनशीलता महाराष्ट्र के लोगों में है, वैसी बहुत कम राज्यों में पाई जाती है. पु. एल. देशपांडे के बारे में अभद्र टिप्पणी करने के लिए शिवसेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे को समाज के सभी वर्गों से इतनी कड़ी आलोचना मिली कि उनके होश फाख्ता हो गए.
देश भर में यह पूछा जाने लगा कि क्या सरकार बाल ठाकरे की जागीर है ? सरकारी पुरस्कार का पैसा क्या ठाकरे की जेब से आता है ? क्या पु.ल. जैसे साहित्यकार को पुरस्कृत करने का मतलब यह है कि सरकार उनसे आजीवन अपना गुणगान कराना चाहती है ?अपमानजनक बयानों के विरोध में उस समय के सभी साहित्य प्रेमियों ने यह भी मांग की थी कि देशपांडे यह पुरस्कार महाराष्ट्र सरकार को लौटा दें.
इस विवाद में आम लोगों ने भी साहित्यकारों का साथ दिया और यह देख कर ठाकरे सकते में आ गए. बाद में ठाकरे ने माफी मांगी तो ऐसे कि लोगों से अपील की, ‘पु.ल. को छोड़ दो, वह महान है. मैं उसकी बहुत इज्जत करता हूं. उसके बारे में कोई कुछ न बोलो.’
कुछ समय बाद ठाकरे खुद चलकर पी. एल. देशपांडे के पुणे स्थित आवास पर भी गए और एक सार्वजनिक साक्षात्कार में कहा कि खराब स्वास्थ्य के कारण मैं अक्सर रात में अपनी आंखों से नहीं देख पाता हूं. उस समय मैं वही करता हूं टेप रिकॉर्डर पर. पी. एल. देशपांडे की आलू चाल, व्यक्ति और वल्ली, वायवर्ची वरात आदि के कैसेट चलती है और इसे सुनता हूं. और इस तरह से इस विवाद का पटाक्षेप हुआ
आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी सरकार के विरोध में उन्होंने खुलकर अपनी भूमिका निभाई। वे इस तानाशाही रवैये के खिलाफ खुलकर भाषण देते थे, विरोध सभाओं में शामिल होते थे और यहां तक कि एक नाटक भी किया था, जो आपातकाल के विरोध को दर्शाता था। उस दौर में सरकार के खिलाफ खुलकर बोलना खतरे से खाली नहीं था, लेकिन उन्होंने निडर होकर अपने विचार व्यक्त किए और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए संघर्ष किया।
जब आपातकाल खत्म हुआ और इंदिरा गांधी की सरकार सत्ता से बाहर हो गई, तब लोकतंत्र समर्थकों को यह बदलाव अपने संघर्ष का परिणाम लगा। इसी क्रम में जब जयप्रकाश नारायण मुंबई आए, तो उन्होंने उन्हें विशेष रूप से मिलने के लिए बुलाया। उस समय जयप्रकाश नारायण का स्वास्थ्य ठीक नहीं था, वे डायलिसिस करा रहे थे। मुलाकात के दौरान उन्होंने उन्हें दिल्ली आकर शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने का आग्रह किया। जयप्रकाश नारायण ने कहा कि उन्होंने इस बदलाव के लिए मेहनत की है और यह उनका हक बनता है कि वे इस ऐतिहासिक क्षण के साक्षी बनें।
लेकिन उन्होंने इस निमंत्रण को विनम्रतापूर्वक ठुकरा दिया। उनका मानना था कि यदि वे इस समारोह में शामिल होते हैं, तो उनकी निष्पक्षता पर सवाल उठ सकते हैं। उन्होंने कहा कि उन्हें अपना यह हक बचाकर रखना है कि वे इस नई सरकार की भी आलोचना कर सकें, यदि वह गलत रास्ते पर जाए। यह सोच लोकतंत्र की असली भावना को दर्शाती है, जहां कोई भी सरकार आलोचना से परे नहीं होनी चाहिए और जनता का हर व्यक्ति सत्ता की जवाबदेही तय करने का अधिकार रखता है।
उन्होंने मौजूदा राजनीतिक हालात पर भी अपनी राय रखी। उनके अनुसार, आज की राजनीति पूरी तरह से अवसरवाद से भर गई है। कोई नहीं जानता कि कौन किस पार्टी में रहेगा, क्योंकि लोग एक पल में एक दल में होते हैं और अगले ही पल किसी और दल में चले जाते हैं। राजनीति अब एक पेशा बन गई है, जहां जो बेहतर सौदा दे, लोग वहां जाने को तैयार हो जाते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि अगर इसे एक व्यवसाय के रूप में अपनाया जा रहा है, तो कम से कम यह तो स्वीकार किया जाना चाहिए कि अब यह सिर्फ विचारधारा का संघर्ष नहीं बल्कि एक पेशेवर दुनिया बन चुकी है, जहां लोग पैसे और फायदे के आधार पर फैसले लेते हैं।
उन्होंने इस बात पर भी निराशा जताई कि आज के समय में कोई भी ऐसा राजनेता नहीं दिखता, जिसके विचारों और कार्यों पर चर्चा की जा सके। उनकी नजर में राजनीति अपने मूल उद्देश्य से भटक चुकी है, जहां सेवा की भावना के बजाय निजी स्वार्थ हावी हो गए हैं। वर्तमान परिस्थितियों में सिद्धांत और निष्ठा के बजाय अवसरवाद और स्वार्थ की राजनीति ज्यादा प्रभावी हो गई है, जो लोकतंत्र के लिए एक गंभीर चिंता का विषय है ।
कला जगत में विचारधाराओं के बारे में श्री पालेकर ने कहा कि उनके गुरु सत्यदेव दुबे अपने विश्वदृष्टिकोण में दक्षिणपंथी थे, लेकिन उन्होंने इसे कभी अपने काम में नहीं आने दिया। “ बासु दा (बासु चटर्जी) और ऋषि दा(ऋषिकेश मुखर्जी) के पास मजबूत राजनीतिक विचार थे, लेकिन वे उनकी कला में नहीं झलकते थे।”