मेरे लिए थियेटर ही मंदिर है :इला अरुण 

नवल पांडेय।

मेरे लिए थियेटर ही मंदिर है :इला अरुण 

Ananya soch: Theatre is a temple for me Ila Arun

अनन्य सोच। गायिका, थियेटर आर्टिस्ट और फ़िल्म कलाकार इला अरुण का कहना है कि सुभाष घई की फ़िल्म “खलनायक” में गाया आइटम सॉंग उनके साथ ऐसे चिपक गया है जैसे यह मेरी कोई सिग्नेचर ट्यून हो जबकि यह तो कमाने का एक ज़रिया मात्र था। इस चोली के पीछे के टेलर तो सुभाष घई थे। चोली के पीछे मतलब व्यक्ति के पीछे। उन्होंने कहा कि जब मैं अपनी किताब “पर्दे के पीछे” लिख रही थी तो लोगों ने सलाह दी कि इसका टाइटल “चोली के पीछे” रखिए लेकिन मैंने यह सुझाव नहीं माना और टाइटल “पर्दे के पीछे” रखा।

इला ने कहा कि इस पुस्तक में मेरा संघर्ष नहीं बल्कि रोमांस है कला के प्रति। इसमें स्त्रियों की आवाज है, उपेक्षित स्त्री, युवा और वृद्ध स्त्री और पर्दे के पीछे रहने वाली स्त्री। वो सब स्त्रियां जिन्होंने मुझे इंस्पॉयर किया। इसमें मानवता की बाते हैं। इसमें मैं कहीं अपने पर हँसी हूँ तो कहीं रुक कर सोचती भी हूँ कि यह कैसे हो गया। किताब लिखने के विचार की शुरुआत कोविड के दौरान हुई। वैसे मन में तो मैं हमेशा लिखती रहती थी। मैं अपने नोट्स हिंदी में लिखती थी जिन्हें अंजला बेदी अंग्रेजी में तैयार करती थी। मैंने इसे कह दिया था कि जैसा है बिल्कुल वैसा ही लिखो। उन्होंने महाभारत का उदाहरण देते हुए कहा कि ब्रह्मा जी वेदव्यास से महाभारत लिखने को कहा तो वेदव्यास जी ने इसके लिए गणेश जी को तैयार किया और कहा कि मुझे आपसे महाभारत लिखवानी है लेकिन शर्त है कि जैसा मैं कहूँगा आपको वैसा ही लिखना होगा। कोई बदलाव नहीं। यहाँ पेंगुइन मेरे लिए ब्रह्मा जी थे तो अंजला बेदी मेरी गणेश हैं। 
अंजला ने कह कि भारत द्विभाषी या कहें बहूभाषी राष्ट्र है इसलिए भाषा कोई बाधा नहीं रही मेरे सामने इस किताब को रचते समय और मैं यह भी स्पष्ट कर दूँ कि मैंने इसका अनुवाद नहीं किया है। भारतीय एक भाषा से दूसरी भाषा में आसानी से प्रवेश कर जाते हैं। 
इला ने कहा कि थियेटर मेरे लिए मंदिर ही है क्योंकि मैं वही जीना चाहती हूँ जो मेरे इर्दगिर्द है। थियेटर के लिए मैं मुंबई में रेलगाड़ी में बैठकर चर्चगेट जाया करती थी क्योंकि मुझे अपना कला का मंदिर बनाना था। मेरा मानना है कि समाज को कुछ संदेश देने का सबसे अच्छा माध्यम कला ही है। आप नाटकों के ज़रिए आसानी से बड़ी से बड़ी बात कह जाते हैं। केवल थियेटर ही नहीं बल्कि अन्य कला माध्यम भी यह करते हैं। अच्छे नाटक जिन्हें समाज , परिवार , पति-पत्नी और बच्चे सब देख सकें, ऐसा थियेटर मंदिर ही तो है। 
आज के युवाओं में थियेटर के प्रति कम होती रुचि का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि चूँकि थियेटर में पैसा नहीं है इसलिए आज का युवा चाहते हुए भी थिएटर नहीं करना चाहता। जबकि थियेटर आपको अनुशासन सिखाता है। रीडिंग, राइटिंग और ऑब्जर्वेशन सिखाता है। आप एक साथ कई जीवन जी रहे होते हैं थियेटर की दुनिया में। वहाँ आपको इमोशन सिखाया जाता है। उन्होंने कहा कि अच्छे प्ले के लिए अच्छे थियेटर भी होने चाहिए जिनकी आज कमी है। लोग मॉल में जाते हैं , पर थियेटर में नहीं जाना चाहते। हमें टिकिट ख़रीदकर नाटक देखने की परम्परा को विकसित करना होगा। एक थियेटर कलाकार तीन घंटे के प्ले के लिए कई महीनों तक अभ्यास करता है । 
इला ने कहा कि उन्होंने “सुरनाई फाउंडेशन” की स्थापना कर हिंदी थियेटर के चैलेंज को स्वीकार किया है। इसमें मेरी चार दशक की जर्नी शामिल है। हमने ओरिजनल वर्क और प्ले पर काम किया है। लोगों से कनेक्ट होने के लिए हमने ख़ुद नाटक लिखे। बाहर के नाटकों का हमारी संस्कृति में अडॉप्शन किया। नाटकों के जरिए महिलाओं की आवाज को उठाना ही हमारा मकसद है। 
इला का कहना था कि मेरे लिए अभिनय और गायन दोनों एक ही समान है। मैं जब अभिनय करती हूँ तो गाती भी हूँ और जब गाती हूँ तब अभिनय भी करती हूँ। दर्शकों के प्यार से ही मैं आज भी ख़ुद को उतना ही ताजगीपूर्ण महसूस करती हूँ। 
इला ने वोट फॉर घाघरा और रेशम का रुमाल गीत भी सुनाए। 

एम के रैना हुए नाराज , बीच सत्र छोड़ा मंच 
चार बाग में हुए सेशन का नाम था “मेमोरिज फ्रॉम स्टेज एंड फिल्म” और इसमें इला की किताब के साथ ही प्रसिद्ध रंगकर्मी और निर्देशक एम के रैना की किताब पर भी बात होनी थी। मॉडरेटर असदलाल के सवाल पर रैना ने कहा कि मैं कश्मीर से आता हूँ और मैंने मणिपुर व पंजाब में भी थियेटर किया है लेकिन अब भारत बदल रहा है। मेरी किताब में कश्मीर के व्यक्तिगत अनुभव हैं। भारत में कस्बों और गाँव में करोड़ों लोग रहते हैं जिन्हें वो सुख सुविधाएं नहीं मिल रही जो शहरी इलाक़ों में रहने वालो को मिलती है। आज स्कूल और टीचर्स का महत्व ख़त्म होता जा रहा है और लोग गूगल और कंप्यूटर को ज्ञान का माध्यम बना रहे हैं जबकि अनुशासन व संस्कार आपको टीचर से ही मिल सकते हैं। रैना ने कहा कि आज हम जातियों और संप्रदायों में बाँटते जा रहे हैं जबकि मेरा बचपन ऐसा नहीं था। पूरे देश में कश्मीर ही एक ऐसा राज्य था जहाँ शिक्षा पूरी तरह निशुल्क दी जाती थी। आज सरकारों का ध्यान शिक्षा और स्वास्थ्य पर है ही नहीं। 
रैना ने कहा कि आजतक कहानी पर जितनी भी फिल्में बनी हैं सब बहुत बुरी हैं क्योंकि उनमें कश्मीर की सच्चाई नहीं है। 
इसी दौरान इला को मंच पर ज़्यादा स्पेस मिलता देख रैना मंच से उठकर चले गए उस समय इला कश्मीर पर अडॉप्ट इप्सन के नाटक के एक अंश का प्ले कर रही थी। रैना के मंच छोड़ना उन्हें बुरा लगा और इला ने कहा कि रैना को ऐसे नहीं जाना चाहिए था । कुछ देर बाद उन्होंने फिर कहा कि “अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आया? लेकिन रैना अंत तक मंच पर नहीं आए जबकि इला ने श्रोताओं से उनकी किताब खरीदने का आग्रह करते हुए कहा कि रैना को गुस्सा बहुत आता है। मॉडरेटर ने भी सफ़ाई दी कि पैनल में शामिल किसी लेखक का अपमान करना उनका उद्देश्य नहीं है ।